वैदिक धर्म मनुष्य निर्मित नहीं अपितु परमात्मा से प्रेरित व प्राप्त धर्म है। वैदिक धर्म का आरम्भ चार वेदों से हुआ। यह वेद वा वेदज्ञान सृष्टि उत्पत्ति के साथ, सृष्टि के आरम्भ में ही चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को प्राप्त हुआ था। चार ऋषि थे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा। इन ऋषियों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने वेदों के प्राप्त हुए ज्ञान को ब्रह्मा जी को प्रदान किया जिससे सृष्टि के आरम्भ में यह ऋषिगण चारों वेदों के पूर्ण ज्ञानी हो गये थे। यह भी बता दें कि ईश्वर ने इन चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देते हुए उन्हें भाषा का ज्ञान भी कराया था। यह ज्ञान वेदार्थ सहित सर्वान्तर्यामी स्वरूप ईश्वर की प्रेरणा से ऋषियों की आत्माओं में स्थापित, स्थिर तथा इंस्टाल हुआ था। इन ऋषियों ने इस ज्ञान को मनुष्य जाति के लिए हितकारी एवं कल्याणप्रद पाया। उन्होंने ईश्वर की प्रेरणा से ही इन वेदों का ज्ञान शेष मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों को वाणी से बोलकर व समझाकर प्रदान किया। तभी से वेदाध्ययन वा वेदों के पठन-पाठन की परम्परा आरम्भ हुई जो अद्यावधि चली आ रही है। वर्तमान समय में हमारे वैदिक गुरुकुलों के आचार्य वेद की पुस्तकों व व्याकरण ग्रन्थों की सहायता से अपने ब्रह्मचारियों व शिष्यों को वेदों का ज्ञान कराते हैं।
वेदों में ईश्वर, जीवात्मा तथा त्रिगुणात्मक प्रकृति को अनादि, नित्य, अविनाशी बताया गया है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, सृष्टिकर्ता, जीवों को जन्म देनेवाला, सभी प्राणियों के जन्म व मृत्यु का आधार तथा जीवों के सभी शुभाशुभ वा पाप-पुण्य कर्मों के सुख व दुःखी रूपी फलों का प्रदाता है। जीवात्मा चेतन सत्ता है। यह अल्पज्ञ, अनादि, नित्य, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, अजर, अमर, जन्म-मरण धर्मा, मनुष्य योनि में स्वतन्त्रता से कर्मों को करने वाली तथा ईश्वर की व्यवस्था से उनके फल प्राप्त करने वा फल भोगने वाली है। जीवात्मा का यह जन्म भी उसके पूर्वजन्मों के आधार पर हुआ है। इस जन्म में पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करने व नये कर्मों के बाद जो कर्म भोग करने योग्य होते हैं, उसके आधार पर उस जीवात्मा का मनुष्य व अनेक योनियों में जन्म होता है। यदि उसे उसके कर्मों का फल न मिले तो ईश्वर पर आक्षेप आता है कि उसने सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ होकर भी जीवों के कर्मों का न्याय नहीं किया। ईश्वर का सृष्टि बनाने का कारण भी उसका सृष्टि बनाने में समर्थ होना तथा जीवों को उनके पूर्वजन्म के कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म देना है। यदि वह ऐसा न करे तो उस पर समर्थ होकर भी सृष्टि न बनाने तथा जीवों को सुख व कल्याण का अवसर न देने का आरोप लगता है। सृष्टि बनाकर, जीवों को जन्म देकर तथा कर्मानुसार सुख व दुःख प्रदान कर ईश्वर सभी आरोपों से मुक्त हो जाता है। ईश्वर का बनाया हुआ संसार हमारी आंखों के सम्मुख प्रत्यक्ष है। जीवात्माओं का अस्तित्व भी संसार में नाना प्राणी योनियों के होने से प्रमाणित है। उनका जन्म व मृत्यु देखी जाती है। इनमें श्वसन क्रिया भी होती है। वृद्धि व ह्रास का नियम भी इनमें कार्य करता है। उन सभी को सुख व दुःख भी होता है। सभी प्राणियों के शरीर जड़ होते हैं। वह पार्थिव होते हैं वा प्रकृति के बने होते हैं जिन्हें ईश्वर बनाता है। सभी शरीरों में एक-एक स्वाभिमानी आत्मा होता है जिसे ईश्वर अपने प्राकृतिक नियमों के अनुसार जन्म से पूर्व माता के गर्भ में प्रविष्ट करता है।
मनुष्य की आत्मा का जन्म व पुनर्जन्म होता है, यह वैदिक मान्यता है जो अनेक प्रमाणों वा तर्कों से सिद्ध है। आत्मा अनादि तथा अविनाशी तत्व है। विज्ञान का नियम है कि न तो कोई नया पदार्थ बनाया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है। गीता में कहा गया है कि अभाव से भाव की उत्पत्ति तथा भाव पदार्थ का अभाव नहीं होता। संसार में जो पदार्थ पहले से होता है उनका किंचित रूप परिवर्तन ही होता है परन्तु वह पुनः अपने मौलिक रूप में लाये जा सकते हैं। जल को गर्म करने से भाप या वाष्प बन जाती है। वाष्प को यदि ठण्डा करें तो वह पुनः जल में परिवर्तित हो जाती है। आत्मा एक मौलिक तत्व है। यह सदा से है और सदा रहेगा। आत्मा न स्वयं बनी है और न परमात्मा ने ही इसे बनाया है। इसका अस्तित्व अनादि व नित्य है। इससे यह ज्ञात होता है कि आत्मा अनन्त काल से इस आकाश व संसार में विद्यमान है। अनादि व नित्य होने से यह अनन्त काल तक विद्यमान रहेगी और कभी नाश को प्राप्त नहीं होगी। इस अनन्त काल में आत्मा का जन्म एक बार हो, पूर्व व पश्चात न हो, इसका प्रमाण किसी के पास नहीं है। कर्म फल सिद्धान्त से यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगने के लिये ही जन्म लेती है। यदि परमात्मा इसको जन्म न दे तो उसका ऐसा करना इसके साथ न्याय नहीं कहा जायेगा। संसार में यदि कोई मनुष्य अपराध करे और वह दण्डित न हो तो उस व्यवस्था व उसके अधिपति को सब बुरा कहते हैं। ऐसा ही अनन्त संख्या में विद्यमान आत्माओं को कर्मों का फल न मिलने पर परमात्मा पर भी आरोप लगेगा। परमात्मा हर दृष्टि से पूर्ण ज्ञान एवं कर्म की दृष्टि से सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। अतः वह जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म वा योनि प्रदान करते हैं। हमारा वर्तमान जन्म हमारे पूर्वजन्म का परिणाम है और हमारा पुनर्जन्म हमारे इस जन्म के उन कर्मों के कारण होगा जिनको हमने किया तो है परन्तु हम उनका फल मृत्यु पर्यन्त भोग नहीं सके हैं। इस आधार पर पुनर्जन्म का होना सिद्ध होता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि जन्म का कारण हमारे पूर्व किये हुए कर्म होते हैं और हमारे पुनर्जन्म का आधार वा कारण भी हमारे इस जन्म के कर्म ही होते हैं जिनका भोग हमें परमात्मा की न्याय व्यवस्था से प्राप्त होता है।
हमारा यह जन्म पूर्वजन्म का पुनर्जन्म है। हम जब इस पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि हमारे गुण, कर्म व स्वभाव हमारे समय में कुछ आगे पीछे उत्पन्न बच्चों के समान नहीं है। सबके गुण, कर्म व स्वभाव में अन्तर होता है। एक ही परिवार में अनेक बच्चे होते हैं परन्तु अलग अलग समयों में जन्म लेने वालों तथा एक साथ जुड़वा जन्म लेने वाले बच्चों के गुण, कर्म व स्वभाव भी एक समान नहीं होते। एक की बुद्धि तीव्र तथा स्मरण शक्ति भी तीव्र हो सकती है। दूसरे बच्चे की मन्द देखी जाती है। एक का शारीरिक बल अधिक होता है तो दूसरों का कम होता है। एक स्वभाव से माता-पिता व बड़ों का आज्ञाकारी होता है और कुछ बच्चे माता-पिता के लिये सिर दर्द बन जाते हैं। इसी प्रकार से एक ही समय वा एक ही दिन उत्पन्न हुए अनेक बच्चे कोई अल्पायु होता है तो कोई दीर्घजीवी। कोई निर्धन के यहां जन्म लेता है तो कोई धनवान के यहां। कुछ की जन्म के कुछ समय बाद मृत्यु तक हो जाती है। इसके कारणों पर विचार करने पर यही विदित होता है कि इन सबका कारण जीवात्माओं के पूर्वजन्म के कर्म हैं जिनका फल जीवों को अलग अलग मिला है। यदि इसे नहीं मानेंगे तो एक परिवार में ही जन्में बच्चों में जो असमानतायें व अन्तर देखा जाता है, उसका उत्तर नहीं दिया जा सकेगा।
जीवात्मा का पुनर्जन्म होता है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि बच्चा बिना कोई काम सिखाये सीखता नहीं है। बच्चे को रोना आता है। वह रोते हुए मा, मा पुकारता है। यह सब उसके पूर्वजन्म के संस्कार व अभ्यास ही सिद्ध होते हैं। बच्चा सोते सोते कई बार मुस्कराता या हंसता है। यह पूर्वजन्म की स्मृतियों के कारण होना माना जाता है। इसका अन्य कोई कारण विदित नहीं होता। बच्चा जन्म के कुछ ही समय बाद अपनी माता का दुग्ध पान आरम्भ कर देता है। यह भी उसके पूर्वजन्म का संस्कार वा प्रमाण है। एक प्रश्न यह भी पूछा जाता है कि यदि हमारा पुनर्जन्म होता है तो हमें पूर्वजन्म की बातें याद क्यों नहीं रहती? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य का मन एक समय में एक ही क्रिया करता है। इसको अपने वर्तमान समय की बातों का ज्ञान व उनका हर समय अहसास रहता है। इस कारण उसे पूर्वकाल की बातें, दोनों साथ-साथ, याद नहीं रहतीं। पूर्वजन्म की हमारी पुरानी स्मृतियां हमारे उस जन्म के शरीर के मर जाने के कारण उसी में रह जाती हैं। यहां नये परिवेश में आकर वह यहां की बातों को स्मरण कर उसकी पूर्वजन्म की पुरानी यादें धुंधली होती जाती हैं। जन्म के समय व उसके कुछ बाद यदि बच्चे को कुछ पूर्वजन्म की बातें याद भी होती हैं तो उसके शरीर के अंगों की निर्माणावस्था व उसकी भावनाओं को व्यक्त करने में वह समर्थ नहीं होता। उसको पहले बचपन में माता-पिता से भाषा सीखनी पड़ती है। जब वह बोलना सीख जाता है तभी वह कुछ बता सकता था। अब बड़ा होने पर नये वातावरण में नई बातों से उसका मन व चित्त भरा होता है। पूर्वजन्म की स्मृतियां चित्त पर अंकित होने पर भी उसके नये अनुभवों व स्मृतियों के कारण उसे पूर्वजन्म की बातें स्मरण नहीं आती।
मनुष्य व आत्मा का यह स्वभाव है कि वह नई बातें याद करता है तो पूर्व की बातों की आवृत्ति न होने के कारण वह विस्मृत होती जाती हैं। अतः पूर्वजन्म की स्मृतियों का स्मरण न होना पूर्वजन्म न होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता। पूर्वजन्म के अनेक कारण व प्रमाणों की चर्चा हम कर चुके हैं। उसके आधार पर ही हमें पूर्वजन्म को स्वीकार करना चाहिये। वेदज्ञान को प्राप्त करना चाहिये और उसके अनुसार आचरण करते हुए हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिये। वेदज्ञान में प्रवेश करने से पूर्व सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन आवश्यक है। इसके बाद हम उपनिषद व दर्शनों सहित अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन कर लाभ उठा सकते हैं। हम जितना अधिक सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं उतनी ही हमारी बुद्धि विविध विषयों को समझने लगती है और हमें पूर्वजन्म एवं वेद की मान्यताओं पर पूरा विश्वास हो जाता है। अतः पूर्वजन्म एक सत्य सिद्धान्त है। हमारा पुनर्जन्म अवश्य होगा। उसका कारण हमारे इस जन्म व पूर्व के कर्म ही होंगे। अतः हमें जीवन में कोई भी अतार्किक व बुरा काम नहीं करना चाहिये। वेदाज्ञा का पालन करेंगे तो निश्चय ही हमें पुनर्जन्म में मनुष्य योनि मिलेगी और हम अभावों के दुःख से ग्रस्त न होकर सुखी, शिक्षित व धार्मिक परिवार में जन्म पा सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य