उन्नीसवीं सदी में शिकागो की धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी भाषण से लेकर हालिया नमो युग तक भारत को विश्व गुरु बनाने की बात जोर शोर से कही जाती रही है. राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत इस संकल्पना के साकार होने की कल्पना मात्र से हर भारतीय का सीना छप्पन इंच का हुआ जाता है. संभवतः कुछ ही लोगों को ज्ञात हो कि शिकागो सम्मेलन से एक दशक पूर्व ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ने कैम्ब्रिज में दिए अपने भाषणों में इसी भारतीय अस्मिता को भलीभांति रेखांकित कर व्यापक आलोचना झेली थी.
दरअसल जर्मनी मूल के इस प्रखर प्राध्यापक एफ मैक्स मूलर ने ये भाषण उस ज़माने में भारतीय सिविल सेवा के लिये चयनित उम्मीदवारों को संबोधित करते हुए दिए थे. मैक्स मूलर के इन सात भाषणों का संकलन उनकी बेहद लोकप्रिय और खूब पढ़ी जाने वाली किताब ‘इंडिया: व्हाट कैन इट टीच अस ?’ में समाहित है. इस पुस्तक में संजोये अपने भाषणों के जरिये मैक्स मूलर महाशय ने भारत को बर्तानिया हुकूमत से आज़ादी मिलने के पैंसठ साल पहले बता दिया था कि प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की धरोहर पर टिका यह देश दुनिया को क्या क्या सिखा सकता है..?
अंग्रेजी की इस बेस्ट सेलर पुस्तक का सुधि लेखक पत्रकार प्रकाश थपलियाल द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद उत्तराखंड प्रकाशन ने छापा है. उत्तराखंड में चमोली जिले के आदि बदरी स्थित हिमालय संचेतना संस्थान द्वारा प्रकाशित साढ़े पांच सौ रुपये की ग्लेज़्ड पेपर पर छपी इस किताब ‘भारत हमें क्या सिखा सकता है ?’ को पढ़ना प्राचीन सभ्यता की अस्मिता से रूबरू होने जैसा है. 191 पृष्ठों की पुस्तक के फ्लैप पर दिए गए इस वाक्यांश से गूढ़ार्थ को समझा जा सकता है- “अगर हम हिमालय को एवरेस्ट की ऊँचाई से नापते हैं तो हमें भारत की सही पैमाईश वेदों के कवियों, उपनिषदों के ऋषियों, वेदांत और सांख्य दर्शन के प्रवर्तकों और प्राचीन संहिताओं के लेखकों के जरिये करनी चाहिए न कि उनसे जो जीवन के उनींदे सपनों से एक क्षण के लिये भी नहीं जागे.”
मैक्स मूलर के भाषणों का हिंदी में अनुवाद करना थपलियाल के लिये भी आसान न था. पुस्तक के आमुख में उन्होंने बड़ी साफगोई से लिखा है- “मैक्स मूलर मूलतः जर्मन थे संभवतः इसलिये उनका अंग्रेजी वाक्य विन्यास जटिल प्रतीत होता है. पहली नज़र में विषयवस्तु के हिसाब से मुझे उनकी यह पुस्तक अनुवाद के सर्वथा योग्य लगी. पहले विचार आया कि पाठकों के लिये अपनी पिछली अनुवादित पुस्तकों की तरह सरलता कायम रखने के लिये अनुवाद के बजाय इसका रूपांतर किया जाए. लेकिन रूपांतर या भावानुवाद से तथ्यों की विश्वसनीयता घट जाने का खतरा था, इसलिये अनुवाद का ही साहस किया. वस्तुतः मैक्स मूलर का साहस ही इसके अनुवाद में भी प्रेरक बना. मेरा प्रयास इतना भर है कि मैं मैक्स मूलर और पाठकों के बीच अदृश्य रहूँ.”
पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का आस्वाद विषय की गंभीर मीमांसा के अनुरूप अवश्य है. लेकिन यदि प्रकाश थपलियाल ने अकादमिक दृष्टिकोण से इतर आम पाठकों को ध्यान में रखकर बोधगम्य शैली में इसका पुनर्लेखन किया होता तो शायद पुस्तक के कई गुना अधिक हाथों में पहुँचने का सुयोग बनता. चूँकि मूल कृति का हिंदी अनुवाद इक्कीसवीं सदी में आया है इसलिये मुखपृष्ठ और अधिक आकर्षक व सामयिक होना चाहिए था.
विनोद नागर
(लेखक स्तंभकार और समीक्षक हैं)
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पुस्तक शीर्षक : भारत हमें क्या सिखा सकता है ?’
लेखक: मैक्स मूलर अनुवाद: प्रकाश थपलियाल
प्रकाशक: उत्तराखंड प्रकाशन, हिमालय संचेतना संस्थान, आदि बदरी, चमोली, उत्तराखंड