सत्यार्थप्रकाश के द्वादश समुल्लास में चारवाक, बौद्ध व जैन मत की असत्य मान्यताओं के खण्डन तथा सत्य मान्यताओं के मण्डन विषय पर व्याख्यान हैं। इसमें ऋषि दयानन्द ने जैन मत की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मान्यता, अनादि व नित्य सत्ता ईश्वर को ईश्वर न मानना और बद्ध जीव की मुक्ति व उस मुक्त जीव को ही ईश्वर मानना विषय पर प्रश्नोत्तर रूप में सत्य का प्रकाश किया है। ऋषि ने इस विषय में निम्न प्रश्न उपस्थित किया हैः
(नास्तिक) जगत् में एक ईश्वर नहीं किन्तु जितने मुक्त जीव हैं वे सब ईश्वर हैं।
(आस्तिक) यह कथन सर्वथा व्यर्थ है क्योंकि जो प्रथम बद्ध (कर्म फल में बद्ध) होकर मुक्त हो तो (वह) पुनः बन्ध में अवश्य पड़े क्योंकि वे स्वाभाविक सदैव मुक्त नहीं। (ईश्वर स्वाभाविक रूप से सदा से मुक्त है और सदा मुक्त रहेगा। वह बन्ध में कभी नही पड़ा इसलिये वह भविष्य में भी कभी बन्ध में नहीं पड़ेगा।) (ऋषि दयानन्द जी आगे कहते हैं कि) जैसे तुम्हारे चैबीस तीर्थंकर पहले बद्ध थे पुनः मुक्त हुए फिर भी बन्ध में अवश्य गिरेंगे और जब बहुत से ईश्वर (जैन अपने सभी तीर्थंकरों को ईश्वर मानते हैं) हैं तो जैसे जीव (मनुष्य) अनेक होने से लड़ते भिड़ते फिरते हैं वैसे ईश्वर भी (अनेक होने से) लड़ा भिड़ा करेंगे।
ऋषि दयानन्द ने यहां तर्कपूर्ण शिक्षा दी है कि जो जीव एक बार बद्ध हुआ है वह हमेशा के लिये मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता और न ही ईश्वर हो सकता है। मुक्त जीव कभी ईश्वर नहीं बन सकता। जीव जीव ही रहता है और उसके स्वाभाविक गुण यथा अल्पज्ञता, एकदेशी होना, समीम होना, जन्म-मरण धर्मा होना, कर्मों का कर्ता और भोक्ता होना आदि मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी उसमें बने रहते हैं। ऋषि दयानन्द ने यह खण्डन व मण्डन सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने के लिये लिखा था। अनुभव यह बताता है कि कोई भी मत अपनी अविद्या व उससे उत्पन्न अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं को यथार्थ रूप में जान लेने पर भी उन्हें छोड़ता व उनका सुधार नहीं करता है। यह मनुष्य जाति की उन्नति के लिये उचित नहीं है और उन्नति में प्रमुख बाधा है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य